जनवरी माह में मैंने कुमाऊॅ की एक यात्रा की थी उस यात्रा में यहां के चित्रकारों से मुलाकातें रही और बातें भी। इसी सब को यात्रावृतान्त की शक्ल दी है बलाग के पाठकों के लिए धारावाहिक के रूप में यह यात्रावृतान्त.................
सबसे पहले शुरूआत करते हैं कि यह एक टूर रिपोर्ट है। एक यात्रा की रिपोर्टिंग। महज एक शब्द होने के बावजूद ‘यात्रा’ बड़ा जीवित शब्द है। इसमें एक अनवरत्ता का एहसास है। जीवन का सा संचार है। सो यात्राऐं मुझे बेहद पसन्द हैं और अपनी इसी यात्रा पसन्दी के मुझ पर आवारा, घुमक्कड़ सरीखे और भी कई टैग लगे हुऐ हैं। एक और शौक मुझे है लिखने का। यहां काॅलेज की ओर से भी एक टूर और फिर उसकी रिपोर्टिंग करने को जब हमें (कुमाऊ विष्वविद्यालय के एस एस जे कैम्पस में चित्रकला एम0 ए0 फॅाइनल के स्टूडैण्ट्स को) कहा गया तो गहरे आकाष में गोते खाने वाले उड़ते-फिरने के रसिक किसी पक्षी को जैसे किसी ने उड़ने के लिए एक और आसमान दे दिया हो, ऐसा ही कुछ मुझे भी लगा। घूमने और लिखने के बीच एक सार्थकता की तलाष मुझे निरन्तर रही है। यहां तो काॅलेज का मामला था, सार्थकता की यह तलाष कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी के साथ थी। फोन से क्लासमेट्स से बात की तो उनका रूझान मंदिरों के भ्रमण की ओर ही ज्यादा था। लेकिन मैं कुछ ऐसा चाह रहा था जिससे कि ‘चित्रकला’ भ्रमण के केन्द्रीय विषय के रूप में रहे। क्योंकि विषय के अनुकूल ही भ्रमण होने में मुझे ज्यादा सार्थकता महषूस हुई। कुमाऊॅ के मंदिरों मंे चित्रकला संबन्धित बहुत कुछ नहीं मिलता है। इसलिए क्लासमेट्स के साथ मंदिर भ्रमण का प्रोग्राम मुझे नहीं जंचा। कुछ मित्रों से सलाह मषविरा कर यात्रा को कुछ रोचक व साउद्ेष्य बनाने की प्लाॅनिंग की तो भ्रमण का एक ऐसा कार्यक्रम बना जिसमें ट्रैक का कोई निर्धारण नहीं था। जिधर राहें ले चलें वहीं मंजिल तलाष लेने के जुनून के साथ ही मेरी यात्रा की शुरूआत भी हुई और यात्रा ख़त्म भी कुछ ऐसे ही हुई। चाहे यात्रा का कोई विषेष ट्रैक मैने न चुना हो लेकिन यात्रा में मैनंे जो कुछ करना था वो मुझे मालूम था। जिस भी शहर में मुझे जाना था वहां चित्रकारों से मिलना व उनसे बातें करने को मैंने भ्रमण का मुख्य उद्देष्य बनाया। इस बीच अपने क्लासमेट ‘मनोज’ से मैनें अपने भ्रमण के कार्यक्रम को शेयर किया। उसकी सहमति थी। उसने मेरे साथ इस यात्रा में शामिल होने में भी सहमति जताई। और तय हुआ कि 21 जनवरी से हम अल्मोड़ा से इस यात्रा को षुरू करेंगे। लेकिन मेरी इस यात्रा को तो मेरे घर से यानि गंगोलीहाट से ही षुरू होना था।
20 जनवरी 2009रू-
एक वीडियो कैमरा, एक ट्रैवलिंग बैग, बैग में कुछ जरूरी सामान, और मेरी मोटरसाईकिल के साथ मैंने गंगोलीहाट में ‘तेल की एक दुकान’ से तेल डलवाकर इस सफर की शुरूआत की। ‘तेल का पम्प’ सुनने के आदियों के लिए ‘तेल की दुकान’ सुनना कुछ अजीब होगा लेकिन यह ‘तेल की दुकान’ ही है। जहां पम्प नहीं होता वहां कुछ लोगों का रोजगार ऐसे ही तेल बेच कर चल जाता है। इससे क्षेत्र के लोगों को तेल का तेल मिला और क्षेत्र के ही लोगों को तेल का रोजगार।............. चलिए अभी आगे बढ़ंे। गंगोलीहाट छोड़ते-छोड़ते 3 कि0मी0 पर एक छोटा स्टेषन हैै ‘दषाईथल’। इससे भी आगे बढ़ें तो अगले तीन कि0 मी0 बाद ‘गुप्तड़ी’ नाम से एक तिराहे से मुलाकात होती है। जिसके आजू-बाजू कुछ चाय की दुकानें हैं। तिराहे का एक रास्ता वो है जिससे हम आए, एक वो है जिससे हमें आज की अपनी मंजिल ‘अल्मोड़ा’ पहुंचना है और जो तीसरा रास्ता है वो एक चिरपरिचित गुफा पाताल भुवनेष्वर का है। इस गुफा में सामान्य दर्षकों के लिए तो बहुत कुछ हैै ही लेकिन चित्रकारों के लिए यहां कुछ ज्यादा ही है। जहां एक ओर प्राकृतिक रूप से उभरी पाषाण आकृतियों को पड़ने समझने का मौका है वहीं दूसरी ओर इन आकृतियों से जुड़ी दन्तकथाओं में उस मानवीय समाज की अभिव्यक्ति को जानने का मौका भी है जो पाषाणखण्डों के अनिष्चित उभारों मंे भी लयबद्ध कहानियां गढ़ सकता है। यहां यह भी समझा जा सकता है कि मानव की, कलाकृतियों, चित्रों, आकारों में कितनी रूचि रही है और वह निरन्तर इन चीजों से कितना प्रभावित और संवेदित रहा है।
इस तिराहे ‘गुप्तड़ी’ से 200 मी0 आगे चलने पर एक मोड़ के बाद उच्चहिमालय की एक बड़ी 400 कि0मी0 लम्बी श्रृंखला ठीक सामने खुलती है। बांई ओर श्रृंखला के आंखिरी छोर पर नंदा घंुघटी(6310), व त्रिषूल की तीन चोटियों का तो आभास मात्र होता है। लेकिन उसके बाद नन्दाकोट(6861), नन्दादेवी(7817), नन्दाखाट, पंचाचूली की पांचों चोटियां और भी कई छोटे-बड़े हिमाच्छादित पहाड़ ठीक सामने ऐसे खुलते दिखते हैं कि सुकून और रोमांच एक साथ दस्तख़ दे मन के पोर-पोर को छू लेता है। और मैं ‘नौतस घाटी’ के घने और ठण्डे जंगल के बीच मोटरसाइकिल को रोक प्रकृति द्वारा पुते हजारों कैनवासों की एग़्िजविषन को निहारने लगता हूं। शान्त जंगल में महज खामोषी को तोड़ती चिड़ियों की चहचहाहट के बीच कहीं गहरी तो कहीं हल्की रंगत लिए हरे, पीले, व सूखे पेड़ और इनके ठीक विरोधी रंग का विषाल खड़ा, ‘हिमवान’, ‘धवल हिमालय’! ऐसे में कोई कैसे रोके अपने हजारों हजार बांध तोड़ सकने वाले मनोभावों को, दिमाग के बहीखातों के अदने से बांध में.........। ..............क्रमषः
अबके जनवरी बीतने को है मगर यहां पहाड़ों में वर्फ तो छोड़ो, पानी की एक बूंद पड़ने को तैयार नहीं है। मौसम इतना ख़ुषनुमा है कि मार्च-अप्रैल दिमाग में घूम रहा है। हिमालय नंगा हो जाने की हद पर है। निचले पहाड़ तो नंगे खड़े ही हैं। ऊपर भी वर्फ न पड़ने से हिमालय के चेहरे की काली झुर्रियां गहरा गई हैं। दुनियां के धीरे-धीरे गर्म होते जाने का प्रभाव दिखने लगा है। हिमालय को स्तब्ध खड़ा देखता हूं, स्तब्ध रह जाता हूं................।
मैं एक यात्रा पर हूं और यात्रा की तासीर नहीं होती कि एक ही जगह रूका जाए। बेहद खूबसूरत इस जगह के बावजूद राॅबर्ट फ्राॅस्ट की एक कविता मुझे यहां से घसीट ले चल रही है.........
Whose woods these are I think I know
His house is in the village, thouh
He will, not see me stoping here
To watch his woods fill up with snow.
My little house must think it queer
To stop without a farmhouse near
Between the woods and frozen lake
The darkest evening of the year
He gives his harness bells a shake
To ask if these is some mistake
The only other sound’s the sweep
Of easy wind and downy flake
The woods are lovely,dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep
राईयांगर! गंगोलीहाट से 18 कि0मी0 चल चुका हूं। यहां भी एक तिराहा है। दांई ओर चलने पर सड़क मुझे बेरीनाग ले चलेगी और मुझे जहां जाना है उसका रास्ता बांई ओर जाता है। सो मैं बांया चलता हूं। it also a rule of driving that 'aiways be left' बांस-पठान, गणाई-गंगोली के बाद एक मोड़ पर सेराघाट से पहले-पहले ही ‘सरयू नदी’ से मुलाकात होती है। नदी की बुनियादी तासीर भी यात्रा की ही है। हिमशिखरों से पिघल अपने प्रारम्भ से ही अगाध समुद्र में उसके मिलन तक नदी निरन्तर यात्रारत ह,ै निरंतर निम्नगा है। ‘महादेवी वर्मा सृजन पीठ’ के विगत् वर्ष के अंतिम माह में कौसानी में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में कवि ‘लीलाधर जगूड़ी’ की कही बातें याद आ रही हैं। ‘नदी’ का अद्भुत् पर्यायवाची है ‘निम्नगा’। नीचे की ओर बहने वाली। नदी ऊपर की ओर बह ही नहीं सकती। वो तो निरन्तर निम्नगा है। इसी निम्नगा होने की उसकी प्रवृत्ति में उसकी विशालता हैै और उसके व्यक्तित्व की ऊॅंचाई भी इसी में है। यूं तो नदी स्वयं में जीवन विहीन है। और इसके मूल तत्व पानी को आप भ्2व् कह सकते हैं। लेकिन इस बहते पानी में जीवन का सा ही संचार है। नदी के रूप में इसकी अपनी पहचान है। इसका अपना पूरा व्यक्तित्व है। इसके बहते पानी के किनारे-किनारे ही कई-कई सभ्यताओं ने अपनी तसरीफ रखी है। आज की तारीख में कई तो लुट गई और कई अब तक जारी हैं। इन ख़यालातों के बीच ही चलते-चलते सेराघाट पहुंचता हूं। पुल से पहले-पहले ही एक पाथर की टोपी पहने मकान की दीवार पर चस्पा एक पोस्टर मुझे रोकता है। पोस्टर कहता है कि ‘‘ ‘हम’ पंचेष्वर बांध निर्माण का विरोध कर रहे हैं ’’। ये ‘हम’ कौन लोग हैं? इसे जानने से पहले चलिए ‘पंचेष्वर’ को जानें। पंचेष्वर बांध को जानें। चंपावत जिले में बिल्कुल भारत-नेपाल सीमा पर बसा है, ‘पंचेष्वर’। नेपाल से भारत का सीमांकन करती आती, तवाघाट से ‘धौलीगंगा’ और जौलजीबी से ‘गोरीनदी’ को भी अपने साथ ही लाती ‘काली नदी’ का पंचेष्वर में दूसरी ओर से आती रामेष्वर में संगमित हई सरयू व रामगंगा से संगम होता है। कुल मिला कर पांच नदियों के हुए संगम से ही इस जगह का नाम पंचेष्वर है। यहां से आगे यह नदी शारदा कहलाती है। विगत् लम्बे समय से कुछ निजि कम्पनियों और सरकार की सम्मिलित गिद्ध दृष्टि इस नदी के अनवरत् बहाव व अगाध जल पर है। यहां एक विषाल बांध परियोजना प्रस्तावित है। टिहरी के विषाल बांध से भी ढाई गुना बड़ी बांध परियोजना। ‘पंचेष्वर’ से हिमालय की ओर मीलों लम्बी इन्हीं पांच नदियों के किनारे-किनारे एक जनसमुदाय, गांवों मंे, कस्बों मंे, शहरों मंे, बसा है जिसने इस परिवेष्ेा को सदियों से सम-विषम, सारी परिस्थितियों मंे जिया है। यहां के भूगोल के साथ अपने आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संबन्ध बनाऐ हैं। सेराघाट के पोस्टर में अंकित ये ‘हम लोग’ यही जनसमुदाय है। जिसे आज पंचेष्वर में बांध बनाऐ जाने से अपनी संस्कृति और सभ्यता के अस्तित्व के ऊपर लटकी तलवार साफ दिखाई देने लगी है और वह इसका विरोध करने को कमर कसने लगा है।
सरयू नदी के ऊपर बने पुल को पार करते ही एक उबड़खाबड़ सड़क पूरे शरीर को झकझोर देती है। कुछ दुकानों को पार कर मैं सेराघाट को छोड़ता हूं। बस कुछ ही कि0मी0 चला हूं कि हाॅटमिक्स सड़क टायरों केा छूती है। ये सड़क निर्माणाधीन है और बाड़ेछीना से ओगला (डीडीहाट) तक हाॅटमिक्स होनी है। उत्तराखण्ड के लोक निर्माण विभाग ने ‘गंगोत्री इंटरप्राइजेज’ नामक किसी निजी कम्पनी के पास इसके काम का दारोमदार सौंपा है। ये बात सड़क भर में लगे इस कम्पनी के बोर्डों और होर्डिंग्स से पता चल जाती है। गजब बात यह है कि सड़क के हाॅटमिक्सिंग का निर्माणकार्य अभी चल ही रहा है या कहें कि आधा भी नहीं हो पाया है कि सड़क पर बिछाया जा रहा डामर उतरने लगा है और सड़क के हाल पूर्ववत ही होने लगे हैं। लेकिन सड़क में हुए निर्माणकार्य की गुणवत्ता को जांचने वाला कोई नहीं है। जब्कि ये मामला जिस विभाग से जुड़ा है उसका मंत्रालय स्वयं, भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन की बात गर्मजोशी से करने वाले उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री के पास ही है।
कुछ देेर और चलने के बाद मैं धौलछीना पहुंचता हूं ये इस रूट का, यात्रियों के खाना-खाने के लिए प्रसिद्ध स्टेषन है। घी-भात के ढाबों से शुरू हुए इस स्टेशन में आज अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होटल और रेस्त्रां भी मौजूद हैं। एक चाय की दरकार अब मुझे भी है। एक ढाबे में मैं चाय पी फिर आगे बढ़ जाता हूं। अगला स्टेशन बाड़ेछीना है। यहां पिथौरागढ़-अल्मोड़ा मोटरमार्ग से यह सड़क मिलती हैै। बाड़ेछीना से लगभग 25 कि0मी0 का ही मेरा सफर अब शेष है। जिक्र किए जाने लायक जो महत्वपूर्ण जगहें जो अब मेरे आज के बाकी सफर में आती हैं वो हैं ‘लखुडियार’ और ‘चितई’। ‘लखुडियार’ पाषाणकालीन मानव के समय से मानव की अभिव्यक्ति और सृजन के प्रति रही छटपटाहट का साक्षी स्थल है। यहां ये छटपटाहट चित्रांकन के माध्यम से प्रस्फुटित हुई है। लेकिन उल्लासित हो नृत्य कर उठने की अभिव्यक्ति भी चित्रांकन के विषय में शामिल है। सड़क से महज 50 से 100 मी0 की दूरी पर ही एक उडियार (ऊॅंची उठी हुई चट्टान) में पाषाणकालीन मानव ने अपने क्रिया कलापों, को रेखांकन द्वारा चित्रित किया है। इतिहासकारों, व चित्रकारों के लिए तीर्थ सरीखी इस दर्षनीय जगह से लौट कर में आगे बढ़ता हूं। कुछ ही दूरी पर गोलूदेवता का मन्दिर ‘चितई’ है। इस लोक देवता का अपना मानवीय जीवन से जुड़ा इतिहास है। ये देवता होने से पहले मानवीय समाज के नायक रहे हैं। पहाड़ी समुदाय की न्याय के इस देवता पर गहरी आस्थाऐं हैं।
अल्मोड़ा पहुंचते पहुंचते मैंने अपने मित्र ‘कंचन’ को फोन किया उसने मुझे ब्राइट एण्ड कार्नर पर बुला लिया। वहां वह अपने किसी दोस्त के घर पर था। मैंने ब्राइट एण्ड कार्नर पर बाइक को स्टैण्ड किया। और उसे फिर फोन कर बता दिया कि मैं पहुंच चुका हूं। उसे आने में कुछ देर थी। ब्राइट एण्ड कार्नर अल्मोड़ा आकाशवाणी के बाद अगला मोड़ है। जहां से अल्मोड़ा के ठीक सामने खड़े विशाल से जंगल भरे पहाड़ के ऊपर शीतलादेवी के मन्दिर के पीछे सूरज शाम को अल्मोड़ा से विदा लेता है। इस खूबसूरत विदाई को देखने की पर्यटाकों में बड़ी होड़ है। अपने कैमरे के साथ पर्यटकों केा इस दृष्य को बटोरते देखना आम बात है। सूरज धीरे-धीरे इस पहाड़ की ओर बढ़ रहा है। बादलों की छिछली और लम्बी कतार उसे अलविदा कहते-कहते सुर्ख हो रही है। एक कार ठीक मेरे आगे खड़ी है। पिलर पर बैठा कार में से उतरा एक पर्यटक निरन्तर प्रकृति के इस अद्भुत् नजारे का अवलोकन कर आह्लादित है। लेकिन पिछले पांच मिनट में उसके मोबाइल फोन की घण्टी तीन बार उसे जैसे सुबह के किसी हसीन सपने से जगा चुकी है और वह फोन मंे बातें कर फिर फिर सो जा रहा है। मैं भी एक नींद से सा जागता हूं। मुझे ‘मनोज’ को फोन करना है। उससे बातंे कर ही कल का सफर तय होगा। मनोज से बात कर अगले दिन का कार्यक्रम तय करता हूं। तय होता है कि भीमताल में डा0 यषोधर मठपाल जी की आर्ट गैलरी को देखा जाए और उनके कलाकर्म की यात्रा केा उन्हीं की जुबानी जाना जाए और कला के समकालीन परिदृष्य पर भी चर्चा की जाय। सूरज ने बस पहाड़ के सबसे ऊपर शेर की आकृति के बने पेड़ को छुआ भर है कि पेड़ भी सूर्य के चुम्बन से बादलों की तरह सुर्ख हो गया है। सूरज पहाड़ में उतरता चला जा रहा है। और पहाड़ है कि उसे अपने गर्भ में समाए चला जाता है। पहाड़ में अदम्य क्षमताऐं हैं। ऐसे कई सूरज हैं उसके भीतर और उन सूरजों की कई गुना अगन भी। ‘कंचन’ के आ जाने से मैं अपने विचारों की दुनियां से लौटता हूं। इसके बाद हम दोनों ही कमरे की तरफ चल पड़ते हैं।
..............क्रमषः
Wednesday, March 25, 2009
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अच्छा प्रयास है रोहित भाई। फ्रास्ट की यह कविता .........and miles to go before i sleep.....जंगलों के बीच दरख्तों की अलग दुनिया में ले जाती है। बहुत दिनों से मन कर रहा है ऐसे माहौल में घूम आने का जहां पानी हो जंगल हों और शान्ति हो । खैर तुम्हारा यह लेख अभी पूरा पढ़ना है तसल्ली से। ब्लाग देखकर अच्छा लगा। जारी रखना यह प्रयास।
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