Sunday, April 26, 2009


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........‘एक और सफर’ का शेषांश

21 जनवरी की सर्द सुबह है। हम अपने सफर की तैयारी में जुट जाते हैं। ‘कंचन’ को भी आज हल्द्वानी एम बी कालेज में बी0एड0 में एडमिषन लेना है। वो आज हल्द्वानी चलेगा। तो भीमताल तक का सफर हमें साथ ही करना है। ‘मनोज’ हमें अपनी मोटरसाइकल के साथ अल्मोड़ा किताबघर के पास मिलेगा। लेकिन कंचन को अपने स्ववित्तपोषित बी0 एड0 में एडमिषन की फाॅर्मलिटीज के कुछ काम निपटाने हैं। जैसे सी0 एम0 ओ0 से मेडिकल सार्टिफिकेट बनवाने का और एम बी कालेज के नाम 29,000रू0 का ड्राॅफ्ट बनवाने का । कुमाऊॅ विष्वविद्यालय ने पैसों में डिग्री बेचने का कुछ सभ्य और माडर्न तरीका इज़ाद कर लिया है। इसके लिए वह बधाई की पात्र है। इस बीच बी0 एड0 की बड़ी होड़ है। रोजगार संबंधी गम्भीर असुरक्षा से भयभीत लगभग सभी ग्रेजुएट बी0 एड0 कर ही लेना चाहते हैं। चाहे इन्हीं के बी0एड0 कर चुके सीनियर्स अपने रोजगार की मांग को लेकर लम्बे समय से आन्दोलित हंै, लाठियां खा चुके हैं, जेल जा चुके हैं.................. खैर! उम्मींद पर दुनियां कायम है। लेकिन जो बात इधर गम्भीर है वो यह है वो है कि बी0 एड0 करने की इस होड़ के चलते अन्य क्षेत्रों की बेहतरीन प्रतिभाओं का गजब ह्रास हो रहा है और अध्यापन में कतई भी शौक न रखने वाले लोगों की एक बड़ी फौज आने वाली पीढ़ियों को पढ़ाने के लिए तैयार हो रही है। ...............खैर!........... राम भरोसे हिन्दुस्तान। बहरहाल ‘कंचन’ के इन्हीं कामों को निपटा कर हम भीमताल की ओर रवाना होेते हैं।
अल्मोड़ा छोड़ते-छोड़ते कर्बला से लोधिया होते-होते काकडीघाट कब पहुंच जाते हैं पता नहीं चलता। काकड़ीघाट, में नदी के पानी में झांकते मन्दिर के प्रतिबिम्ब के किनारे-किनारे बहती सर्पाकार सड़क हमें खैरना, गरमपानी, कैंचीधाम से होते भवाली छोड़ देती है। भवाली खूबसूरत और ठण्डा शहर है। इस बार एक खास बात हुई है जनवरी की 21 तारीख को ही यहां काफल मौजूद हैं। मौसम में आऐ परिवर्तन के कारण ही यह हुआ है कि काफल और बुरांश समय से पहले ही जंगलों को लाल कर रहे हैं। यहां के दैनिक अख़बारों में यह ख़बर के रूप में प्रमुखता से है। भवाली भी एक तिराहा है। एक सड़क नैनीताल की ओर कटती है और दूसरी ओर से आप भीमताल जा सकते हैं और दोनों ही सड़के अलग अलग रूट से हल्द्वानी भी जाती हैं। यहां से भीमताल और नैनीताल दोनांे ही जगहें 11 कि0 मि0 की दूरी पर हैं। हम भीमताल की ओर चलते हैं। दूर से ही गहरे हरे रंग के आगोष में सूरज की रोषनी का परावर्तन करता ताल चमक रहा है। उसकी चमक उधर देखने को मजबूर करती है। धीरे-धीरे हम ताल की ओर बड़ते हैं। मल्लीताल में भी एक तिराहा हैै। यहां से एक सड़क तल्लीताल होते हुए हल्द्वानी की ओर जाती है। और दूसरी सड़क ‘नौकुचिया ताल’ की ओर। आज की रात ‘मनोज’ और मेरा रूकना ‘नौकुचिया ताल’ रोड पर ही मेरी ‘मौसी जी’ के घर पर रहेगा। ‘कंचन’ को हल्द्वानी के लिए विदाकर हम ‘मौसी’ जी के घर की ओर रवाना होते हैं।
सूरज के ढलते जाने का वक्त है। हम अब तक सफर के बाद से काॅफी सुस्ता चुके हैं। डा0 याषोधर मठपाल जी का घर भवाली रोड पर ही स्थित है। पहले भी मेरा एक बार वहां जाना हुआ है। मैंने उनके अद्भुत् सृजन व संरक्षण कर्म को देखा है। लेकिन अबकी बार उनसे बातचीत करना, मेरा स्वार्थ है। उनसे अगले दिन का अॅप्वाइंटमेंट लेने के मकसद से हम उनके घर की ओर चल पड़ते हैं।
‘भीमताल’! इस कस्बानुमा नगर में सुनियोजित रूप से बसासत की अपार संभावनाऐं हैं। यहां झील के ऊपरी छोर मल्लीताल से भवाली की ओर प्लेन्स नुमा सपाट जमींन है और ऐसे ही ‘नौकुचिया ताल‘ की ओर जमींन की स्थिति भी बसासत के हिसाब से अच्छी ही है। ‘भीमताल’ की एक और खास बात है कि ये कुमाऊॅ के सबसे बड़े बाजार हल्द्वानी से महज लगभग 25 कि0मी0 ही दूर है। सुविधाओं और मैदानी इलाके से नजदीकी और पहाड़ की खूबसूरती ‘भीमताल’ को महत्वपूर्ण बना देती है। इसी कारण ‘भीमताल’ अब बाहरी लोगों के आकर्षण का प्रतिनिधि केन्द्र बनने लगा है। न सिर्फ घूमने के लिए बल्कि यहीं बस जाने के लिए भी। लेकिन इस सब के बीच यहां भू-माफियाओं का भी प्रकोप बड़ा है। ये चिन्ताजनक बात है।
शाम के साढ़े पांच बज चुके हैं। हम डा0 मठपाल जी के आवास के पास पहुंचते हैं। सड़क पर ही उनकी गैलेरी का बोर्ड लगा हुआ है। ‘मठपाल्स लोक संग्रह’ ‘म्यूजियम आॅफ फोक कल्चर एण्ड आर्ट गैलेरी’। यहीं से एक सीमेण्टेड ढलानदार सड़क लगभग 50 मी0 नीचे उतरती है। वहां बड़े गेट पर फिर से संस्था का नाम स्वागत कर रहा है। गेट पर ताला है। गेट पर ही नीचे गैलरी के खुलने और बन्द होने का वक़्त लिखा है। हम बन्द होने के 4 बजे के इस वक्त से बहुत लेट हैं। सो अभी मिलने का विचार छोड़ हम अगले दिन ही मुलाकात का कार्यक्रम बनाते हैं। अगले दिन सुबह 11 बजे गैलरी के खुलने के समय में वहां पहुंचते हैं लेकिन ताला अब भी बरकरार है। पड़ौस के घर की एक महिला बताती हैं कि- मठपाल जी शहर से बाहर हैं। वे देहरादून, अपनी पत्नी के इलाज के लिए गए हुए हैं। शायद रविवार तक लौट आऐंगे। अब हमारा कार्यक्रम पूरी तरह बिगड़ चुका है। अब डा0 मठपाल से अब रविवार को उनके देहरादून से लौट कर आने के बाद ही मिलने का हमने कार्यक्रम बनाया। मनोज को अपने किसी जरूरी काम से अल्मोड़ा वापस लौटना था। हमने तय किया डा0 यशोधर मठपाल के लौट आने के बाद हम फोन में बात कर फिर से भीमताल में मिलंेगे और उनसे मुलाकात करेंगे। मनोेज वापस लौट गया। मेरा सफर जारी था। मैं अगले दिन ‘हल्द्वानी’ की ओर रवाना हुआ। कुमाऊॅ की मण्डी है हल्द्वानी। एक अजीब तासीर है इस शहर की। यूं तो ये मैदानी इलाका है। या कहें कि कुमाऊॅ के लोगों के लिए मैदान की शुरूआत यहीं से है। लेकिन यहां पहाड़ बसता है। इस शहर मंे खु़श्बू है पहाड़ की। रंगत है पहाड़ सी।
..............क्रमषः

Wednesday, March 25, 2009

एक और सफर

जनवरी माह में मैंने कुमाऊॅ की एक यात्रा की थी उस यात्रा में यहां के चित्रकारों से मुलाकातें रही और बातें भी। इसी सब को यात्रावृतान्त की शक्ल दी है बलाग के पाठकों के लिए धारावाहिक के रूप में यह यात्रावृतान्त.................
सबसे पहले शुरूआत करते हैं कि यह एक टूर रिपोर्ट है। एक यात्रा की रिपोर्टिंग। महज एक शब्द होने के बावजूद ‘यात्रा’ बड़ा जीवित शब्द है। इसमें एक अनवरत्ता का एहसास है। जीवन का सा संचार है। सो यात्राऐं मुझे बेहद पसन्द हैं और अपनी इसी यात्रा पसन्दी के मुझ पर आवारा, घुमक्कड़ सरीखे और भी कई टैग लगे हुऐ हैं। एक और शौक मुझे है लिखने का। यहां काॅलेज की ओर से भी एक टूर और फिर उसकी रिपोर्टिंग करने को जब हमें (कुमाऊ विष्वविद्यालय के एस एस जे कैम्पस में चित्रकला एम0 ए0 फॅाइनल के स्टूडैण्ट्स को) कहा गया तो गहरे आकाष में गोते खाने वाले उड़ते-फिरने के रसिक किसी पक्षी को जैसे किसी ने उड़ने के लिए एक और आसमान दे दिया हो, ऐसा ही कुछ मुझे भी लगा। घूमने और लिखने के बीच एक सार्थकता की तलाष मुझे निरन्तर रही है। यहां तो काॅलेज का मामला था, सार्थकता की यह तलाष कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी के साथ थी। फोन से क्लासमेट्स से बात की तो उनका रूझान मंदिरों के भ्रमण की ओर ही ज्यादा था। लेकिन मैं कुछ ऐसा चाह रहा था जिससे कि ‘चित्रकला’ भ्रमण के केन्द्रीय विषय के रूप में रहे। क्योंकि विषय के अनुकूल ही भ्रमण होने में मुझे ज्यादा सार्थकता महषूस हुई। कुमाऊॅ के मंदिरों मंे चित्रकला संबन्धित बहुत कुछ नहीं मिलता है। इसलिए क्लासमेट्स के साथ मंदिर भ्रमण का प्रोग्राम मुझे नहीं जंचा। कुछ मित्रों से सलाह मषविरा कर यात्रा को कुछ रोचक व साउद्ेष्य बनाने की प्लाॅनिंग की तो भ्रमण का एक ऐसा कार्यक्रम बना जिसमें ट्रैक का कोई निर्धारण नहीं था। जिधर राहें ले चलें वहीं मंजिल तलाष लेने के जुनून के साथ ही मेरी यात्रा की शुरूआत भी हुई और यात्रा ख़त्म भी कुछ ऐसे ही हुई। चाहे यात्रा का कोई विषेष ट्रैक मैने न चुना हो लेकिन यात्रा में मैनंे जो कुछ करना था वो मुझे मालूम था। जिस भी शहर में मुझे जाना था वहां चित्रकारों से मिलना व उनसे बातें करने को मैंने भ्रमण का मुख्य उद्देष्य बनाया। इस बीच अपने क्लासमेट ‘मनोज’ से मैनें अपने भ्रमण के कार्यक्रम को शेयर किया। उसकी सहमति थी। उसने मेरे साथ इस यात्रा में शामिल होने में भी सहमति जताई। और तय हुआ कि 21 जनवरी से हम अल्मोड़ा से इस यात्रा को षुरू करेंगे। लेकिन मेरी इस यात्रा को तो मेरे घर से यानि गंगोलीहाट से ही षुरू होना था।
20 जनवरी 2009रू-
एक वीडियो कैमरा, एक ट्रैवलिंग बैग, बैग में कुछ जरूरी सामान, और मेरी मोटरसाईकिल के साथ मैंने गंगोलीहाट में ‘तेल की एक दुकान’ से तेल डलवाकर इस सफर की शुरूआत की। ‘तेल का पम्प’ सुनने के आदियों के लिए ‘तेल की दुकान’ सुनना कुछ अजीब होगा लेकिन यह ‘तेल की दुकान’ ही है। जहां पम्प नहीं होता वहां कुछ लोगों का रोजगार ऐसे ही तेल बेच कर चल जाता है। इससे क्षेत्र के लोगों को तेल का तेल मिला और क्षेत्र के ही लोगों को तेल का रोजगार।............. चलिए अभी आगे बढ़ंे। गंगोलीहाट छोड़ते-छोड़ते 3 कि0मी0 पर एक छोटा स्टेषन हैै ‘दषाईथल’। इससे भी आगे बढ़ें तो अगले तीन कि0 मी0 बाद ‘गुप्तड़ी’ नाम से एक तिराहे से मुलाकात होती है। जिसके आजू-बाजू कुछ चाय की दुकानें हैं। तिराहे का एक रास्ता वो है जिससे हम आए, एक वो है जिससे हमें आज की अपनी मंजिल ‘अल्मोड़ा’ पहुंचना है और जो तीसरा रास्ता है वो एक चिरपरिचित गुफा पाताल भुवनेष्वर का है। इस गुफा में सामान्य दर्षकों के लिए तो बहुत कुछ हैै ही लेकिन चित्रकारों के लिए यहां कुछ ज्यादा ही है। जहां एक ओर प्राकृतिक रूप से उभरी पाषाण आकृतियों को पड़ने समझने का मौका है वहीं दूसरी ओर इन आकृतियों से जुड़ी दन्तकथाओं में उस मानवीय समाज की अभिव्यक्ति को जानने का मौका भी है जो पाषाणखण्डों के अनिष्चित उभारों मंे भी लयबद्ध कहानियां गढ़ सकता है। यहां यह भी समझा जा सकता है कि मानव की, कलाकृतियों, चित्रों, आकारों में कितनी रूचि रही है और वह निरन्तर इन चीजों से कितना प्रभावित और संवेदित रहा है।
इस तिराहे ‘गुप्तड़ी’ से 200 मी0 आगे चलने पर एक मोड़ के बाद उच्चहिमालय की एक बड़ी 400 कि0मी0 लम्बी श्रृंखला ठीक सामने खुलती है। बांई ओर श्रृंखला के आंखिरी छोर पर नंदा घंुघटी(6310), व त्रिषूल की तीन चोटियों का तो आभास मात्र होता है। लेकिन उसके बाद नन्दाकोट(6861), नन्दादेवी(7817), नन्दाखाट, पंचाचूली की पांचों चोटियां और भी कई छोटे-बड़े हिमाच्छादित पहाड़ ठीक सामने ऐसे खुलते दिखते हैं कि सुकून और रोमांच एक साथ दस्तख़ दे मन के पोर-पोर को छू लेता है। और मैं ‘नौतस घाटी’ के घने और ठण्डे जंगल के बीच मोटरसाइकिल को रोक प्रकृति द्वारा पुते हजारों कैनवासों की एग़्िजविषन को निहारने लगता हूं। शान्त जंगल में महज खामोषी को तोड़ती चिड़ियों की चहचहाहट के बीच कहीं गहरी तो कहीं हल्की रंगत लिए हरे, पीले, व सूखे पेड़ और इनके ठीक विरोधी रंग का विषाल खड़ा, ‘हिमवान’, ‘धवल हिमालय’! ऐसे में कोई कैसे रोके अपने हजारों हजार बांध तोड़ सकने वाले मनोभावों को, दिमाग के बहीखातों के अदने से बांध में.........। ..............क्रमषः
अबके जनवरी बीतने को है मगर यहां पहाड़ों में वर्फ तो छोड़ो, पानी की एक बूंद पड़ने को तैयार नहीं है। मौसम इतना ख़ुषनुमा है कि मार्च-अप्रैल दिमाग में घूम रहा है। हिमालय नंगा हो जाने की हद पर है। निचले पहाड़ तो नंगे खड़े ही हैं। ऊपर भी वर्फ न पड़ने से हिमालय के चेहरे की काली झुर्रियां गहरा गई हैं। दुनियां के धीरे-धीरे गर्म होते जाने का प्रभाव दिखने लगा है। हिमालय को स्तब्ध खड़ा देखता हूं, स्तब्ध रह जाता हूं................।
मैं एक यात्रा पर हूं और यात्रा की तासीर नहीं होती कि एक ही जगह रूका जाए। बेहद खूबसूरत इस जगह के बावजूद राॅबर्ट फ्राॅस्ट की एक कविता मुझे यहां से घसीट ले चल रही है.........
Whose woods these are I think I know
His house is in the village, thouh
He will, not see me stoping here
To watch his woods fill up with snow.

My little house must think it queer
To stop without a farmhouse near
Between the woods and frozen lake
The darkest evening of the year

He gives his harness bells a shake
To ask if these is some mistake
The only other sound’s the sweep
Of easy wind and downy flake

The woods are lovely,dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep


राईयांगर! गंगोलीहाट से 18 कि0मी0 चल चुका हूं। यहां भी एक तिराहा है। दांई ओर चलने पर सड़क मुझे बेरीनाग ले चलेगी और मुझे जहां जाना है उसका रास्ता बांई ओर जाता है। सो मैं बांया चलता हूं। it also a rule of driving that 'aiways be left' बांस-पठान, गणाई-गंगोली के बाद एक मोड़ पर सेराघाट से पहले-पहले ही ‘सरयू नदी’ से मुलाकात होती है। नदी की बुनियादी तासीर भी यात्रा की ही है। हिमशिखरों से पिघल अपने प्रारम्भ से ही अगाध समुद्र में उसके मिलन तक नदी निरन्तर यात्रारत ह,ै निरंतर निम्नगा है। ‘महादेवी वर्मा सृजन पीठ’ के विगत् वर्ष के अंतिम माह में कौसानी में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में कवि ‘लीलाधर जगूड़ी’ की कही बातें याद आ रही हैं। ‘नदी’ का अद्भुत् पर्यायवाची है ‘निम्नगा’। नीचे की ओर बहने वाली। नदी ऊपर की ओर बह ही नहीं सकती। वो तो निरन्तर निम्नगा है। इसी निम्नगा होने की उसकी प्रवृत्ति में उसकी विशालता हैै और उसके व्यक्तित्व की ऊॅंचाई भी इसी में है। यूं तो नदी स्वयं में जीवन विहीन है। और इसके मूल तत्व पानी को आप भ्2व् कह सकते हैं। लेकिन इस बहते पानी में जीवन का सा ही संचार है। नदी के रूप में इसकी अपनी पहचान है। इसका अपना पूरा व्यक्तित्व है। इसके बहते पानी के किनारे-किनारे ही कई-कई सभ्यताओं ने अपनी तसरीफ रखी है। आज की तारीख में कई तो लुट गई और कई अब तक जारी हैं। इन ख़यालातों के बीच ही चलते-चलते सेराघाट पहुंचता हूं। पुल से पहले-पहले ही एक पाथर की टोपी पहने मकान की दीवार पर चस्पा एक पोस्टर मुझे रोकता है। पोस्टर कहता है कि ‘‘ ‘हम’ पंचेष्वर बांध निर्माण का विरोध कर रहे हैं ’’। ये ‘हम’ कौन लोग हैं? इसे जानने से पहले चलिए ‘पंचेष्वर’ को जानें। पंचेष्वर बांध को जानें। चंपावत जिले में बिल्कुल भारत-नेपाल सीमा पर बसा है, ‘पंचेष्वर’। नेपाल से भारत का सीमांकन करती आती, तवाघाट से ‘धौलीगंगा’ और जौलजीबी से ‘गोरीनदी’ को भी अपने साथ ही लाती ‘काली नदी’ का पंचेष्वर में दूसरी ओर से आती रामेष्वर में संगमित हई सरयू व रामगंगा से संगम होता है। कुल मिला कर पांच नदियों के हुए संगम से ही इस जगह का नाम पंचेष्वर है। यहां से आगे यह नदी शारदा कहलाती है। विगत् लम्बे समय से कुछ निजि कम्पनियों और सरकार की सम्मिलित गिद्ध दृष्टि इस नदी के अनवरत् बहाव व अगाध जल पर है। यहां एक विषाल बांध परियोजना प्रस्तावित है। टिहरी के विषाल बांध से भी ढाई गुना बड़ी बांध परियोजना। ‘पंचेष्वर’ से हिमालय की ओर मीलों लम्बी इन्हीं पांच नदियों के किनारे-किनारे एक जनसमुदाय, गांवों मंे, कस्बों मंे, शहरों मंे, बसा है जिसने इस परिवेष्ेा को सदियों से सम-विषम, सारी परिस्थितियों मंे जिया है। यहां के भूगोल के साथ अपने आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संबन्ध बनाऐ हैं। सेराघाट के पोस्टर में अंकित ये ‘हम लोग’ यही जनसमुदाय है। जिसे आज पंचेष्वर में बांध बनाऐ जाने से अपनी संस्कृति और सभ्यता के अस्तित्व के ऊपर लटकी तलवार साफ दिखाई देने लगी है और वह इसका विरोध करने को कमर कसने लगा है।
सरयू नदी के ऊपर बने पुल को पार करते ही एक उबड़खाबड़ सड़क पूरे शरीर को झकझोर देती है। कुछ दुकानों को पार कर मैं सेराघाट को छोड़ता हूं। बस कुछ ही कि0मी0 चला हूं कि हाॅटमिक्स सड़क टायरों केा छूती है। ये सड़क निर्माणाधीन है और बाड़ेछीना से ओगला (डीडीहाट) तक हाॅटमिक्स होनी है। उत्तराखण्ड के लोक निर्माण विभाग ने ‘गंगोत्री इंटरप्राइजेज’ नामक किसी निजी कम्पनी के पास इसके काम का दारोमदार सौंपा है। ये बात सड़क भर में लगे इस कम्पनी के बोर्डों और होर्डिंग्स से पता चल जाती है। गजब बात यह है कि सड़क के हाॅटमिक्सिंग का निर्माणकार्य अभी चल ही रहा है या कहें कि आधा भी नहीं हो पाया है कि सड़क पर बिछाया जा रहा डामर उतरने लगा है और सड़क के हाल पूर्ववत ही होने लगे हैं। लेकिन सड़क में हुए निर्माणकार्य की गुणवत्ता को जांचने वाला कोई नहीं है। जब्कि ये मामला जिस विभाग से जुड़ा है उसका मंत्रालय स्वयं, भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन की बात गर्मजोशी से करने वाले उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री के पास ही है।
कुछ देेर और चलने के बाद मैं धौलछीना पहुंचता हूं ये इस रूट का, यात्रियों के खाना-खाने के लिए प्रसिद्ध स्टेषन है। घी-भात के ढाबों से शुरू हुए इस स्टेशन में आज अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होटल और रेस्त्रां भी मौजूद हैं। एक चाय की दरकार अब मुझे भी है। एक ढाबे में मैं चाय पी फिर आगे बढ़ जाता हूं। अगला स्टेशन बाड़ेछीना है। यहां पिथौरागढ़-अल्मोड़ा मोटरमार्ग से यह सड़क मिलती हैै। बाड़ेछीना से लगभग 25 कि0मी0 का ही मेरा सफर अब शेष है। जिक्र किए जाने लायक जो महत्वपूर्ण जगहें जो अब मेरे आज के बाकी सफर में आती हैं वो हैं ‘लखुडियार’ और ‘चितई’। ‘लखुडियार’ पाषाणकालीन मानव के समय से मानव की अभिव्यक्ति और सृजन के प्रति रही छटपटाहट का साक्षी स्थल है। यहां ये छटपटाहट चित्रांकन के माध्यम से प्रस्फुटित हुई है। लेकिन उल्लासित हो नृत्य कर उठने की अभिव्यक्ति भी चित्रांकन के विषय में शामिल है। सड़क से महज 50 से 100 मी0 की दूरी पर ही एक उडियार (ऊॅंची उठी हुई चट्टान) में पाषाणकालीन मानव ने अपने क्रिया कलापों, को रेखांकन द्वारा चित्रित किया है। इतिहासकारों, व चित्रकारों के लिए तीर्थ सरीखी इस दर्षनीय जगह से लौट कर में आगे बढ़ता हूं। कुछ ही दूरी पर गोलूदेवता का मन्दिर ‘चितई’ है। इस लोक देवता का अपना मानवीय जीवन से जुड़ा इतिहास है। ये देवता होने से पहले मानवीय समाज के नायक रहे हैं। पहाड़ी समुदाय की न्याय के इस देवता पर गहरी आस्थाऐं हैं।
अल्मोड़ा पहुंचते पहुंचते मैंने अपने मित्र ‘कंचन’ को फोन किया उसने मुझे ब्राइट एण्ड कार्नर पर बुला लिया। वहां वह अपने किसी दोस्त के घर पर था। मैंने ब्राइट एण्ड कार्नर पर बाइक को स्टैण्ड किया। और उसे फिर फोन कर बता दिया कि मैं पहुंच चुका हूं। उसे आने में कुछ देर थी। ब्राइट एण्ड कार्नर अल्मोड़ा आकाशवाणी के बाद अगला मोड़ है। जहां से अल्मोड़ा के ठीक सामने खड़े विशाल से जंगल भरे पहाड़ के ऊपर शीतलादेवी के मन्दिर के पीछे सूरज शाम को अल्मोड़ा से विदा लेता है। इस खूबसूरत विदाई को देखने की पर्यटाकों में बड़ी होड़ है। अपने कैमरे के साथ पर्यटकों केा इस दृष्य को बटोरते देखना आम बात है। सूरज धीरे-धीरे इस पहाड़ की ओर बढ़ रहा है। बादलों की छिछली और लम्बी कतार उसे अलविदा कहते-कहते सुर्ख हो रही है। एक कार ठीक मेरे आगे खड़ी है। पिलर पर बैठा कार में से उतरा एक पर्यटक निरन्तर प्रकृति के इस अद्भुत् नजारे का अवलोकन कर आह्लादित है। लेकिन पिछले पांच मिनट में उसके मोबाइल फोन की घण्टी तीन बार उसे जैसे सुबह के किसी हसीन सपने से जगा चुकी है और वह फोन मंे बातें कर फिर फिर सो जा रहा है। मैं भी एक नींद से सा जागता हूं। मुझे ‘मनोज’ को फोन करना है। उससे बातंे कर ही कल का सफर तय होगा। मनोज से बात कर अगले दिन का कार्यक्रम तय करता हूं। तय होता है कि भीमताल में डा0 यषोधर मठपाल जी की आर्ट गैलरी को देखा जाए और उनके कलाकर्म की यात्रा केा उन्हीं की जुबानी जाना जाए और कला के समकालीन परिदृष्य पर भी चर्चा की जाय। सूरज ने बस पहाड़ के सबसे ऊपर शेर की आकृति के बने पेड़ को छुआ भर है कि पेड़ भी सूर्य के चुम्बन से बादलों की तरह सुर्ख हो गया है। सूरज पहाड़ में उतरता चला जा रहा है। और पहाड़ है कि उसे अपने गर्भ में समाए चला जाता है। पहाड़ में अदम्य क्षमताऐं हैं। ऐसे कई सूरज हैं उसके भीतर और उन सूरजों की कई गुना अगन भी। ‘कंचन’ के आ जाने से मैं अपने विचारों की दुनियां से लौटता हूं। इसके बाद हम दोनों ही कमरे की तरफ चल पड़ते हैं।
..............क्रमषः

Monday, February 9, 2009

Our Art and State: Abode of Gods and Creativity


विगत् दिनों उत्तराखंड के प्रतिनिधि चित्रकार डॉ शेखर जोशी ने भुवनेश्वर (उड़ीसा) में आयोजित सेमिनार में सिरकत की। यहाँ उन्होंने 'अवर आर्ट एंड स्टेट : अबोड ऑफ़ गोड्स एंड क्रेअतिविटी ' विषयक शोधपत्र पढ़ा। ब्लॉग के पाठकों के लिए शब्दशः प्रकाशित....।

Dr Shekhar Chandra Joshi
Reader in Faculty of Art
Kumaon University, SSJ Campus
Almora, Uttarakhand, India
Tel. + 91-05962-230720 (Res.)
Mob. 9719332735
e-mail > joshipti@gmail.com
www.uttarakhandarts.com

It gives me immense pleasure to be with great personalities like you attending the Camp and Seminar in the state Orissa known as the land of Beyond the Shores. I am grateful to Orissa Lalit Kala Academi Bhubneshwar for inviting me to attend the 2nd National Artists Camp and Seminar. I am delighted to present my paper entitled “Our Art and State: Abode of Gods and Creativity”.
The present paper highlights the art and art scenario of Uttarakhand State including the art of self expression. Before presenting it the paper will reveal the general introduction of Uttarakhand and my art. Further, it will focus on few points that should be forwarded to the central and state governments both as a suggestion for their implementation for the sake of overall development of the society and art in the field.
Let me also express my pleasure in introducing myself, I am Shekhar Chandra Joshi from the State Uttarakhand along with my fellow artist Dr. Mamta Singh from the Same state. I am working as a Reader in the Department of Drawing and Painting in Kumaon University SSJ Campus Almora. Visual Arts and Design is our sister department within the art faculty in the campus started three years back is growing as a kind of the first and foremost in the field of art education within the State.
You would believe that I am feeling great joy in participating in this camp and seminar as much as ever before, attending many camps and seminars in the past within the country and outside the country in Korea, France, Canada and Australia.
I have explored different thoughts, mediums and techniques for my painting. I would like to quote the words from Amrit Bazar Patrika, Kolkatta as written on 3rd February 1996 by Ms. Anandita Tamta about my work “The imagination, of the artist, Shekhar Chandra Joshi is touched by such fights and the outcome of it, as is evident from his work (Uttarakhand ka Sangharsh). The dazzling colours of the painting makes the idea more conspicious and vivid”. This oil painting was purchased by Lalit Kala Academi, New Delhi.
I got an extra attention to develop a new kind of technique titled “Finger Nail Painting”. I could not forget the moments spent with the former President of India Dr. Abdul Kalam and others. He and others asked me very excitingly about my kind of art saying that let me/us know about it. How do you do draw and paint with finger nails? I made many paintings with finger nails including the portrait of Dr. Kalam.
I exhibited my Solo Show of fingernails paintings entitled “Fantasy of Raga: The Search for Ecstasy” at first in U.P. State Lalit Kala akademi in the year 1999 when I was Reader in Fine Arts in the Assam (Central) University Silchar. According to HT correspondent printed in the Hindustan Times, Lucknow on January 13, 1999 “The paintings are a unique combination of symbolic, figurative, abstraction and linearity art. Billed as an experiment by Dr Shekhar Chandra Joshi with music to express his everlasting chaos of fantasy with real dreams, the exhibition of Ragamala series of paintings was inaugurated by the Lalit Kala Akademi Chairman, Professor Yogendra Nath Yogi. ”
According to the Times of India coverage regarding to above said exhibition said the critic, “Raag and paints may sound little off beat once you speak of them held together but then but it did not do so to the prolific and gifted painter from the Kumaon- Shekhar Joshi. A man who has travelled world-wide is currently holding an exhibition of his latest series ‘Fantasy of Raga: The Search for Ecstasy’. If one has been to the Lalit Kala Academy to see his work put up for display one has to admit that indeed it is a perfect blend of colours to the rhythm of melodious music.”
I had a chance to work with Orissan artist Jyoti Ranjan Panigrahi in the camp held in Mansar, Jammu & Kashmir organized by Lalit Kala Kendra New Delhi and Jammu Academy in the year 2001. I remember the waves beyond the shores raised in my mind to meet him and also see the work of Dr. Dinanath Pathy and others in 1995. I tried personally to launch “Uttarakhand Artist Association” with the help of other like minded artists Imtiyaz Ali Khan, Ganga Dutta, Anand, Usha, Pushpa, and Charu for conducting several art activities in the field within and outside the region, and then it was in Uttar Pradesh. I became successful registering the Association entitled “Uttarakhand Artists Welfare Association” in the year 1996. Besides, at present Uttaranchal Kala Parisad is working in the state starting from 2000 launched by artist and former Secretary Lalit Kala Akademi, New Delhi Professor B.P. Kamboj and others.
Uttarakhand, the earlier named Uttaranchal is the 27th state of Indian republic. Kumaun and Garhwal are two important region of Uttarakhand. It had a population of 8.48 million in the census of 2001. Dehradun is the capital of the State. Hindi is the principal language of business and administration. Besides, regional Hindi dialects and other indigenous languages are spoken in the state.
The rolling foothills, fertile river valleys, and snowcapped peaks of the Himalayas form the majestic landscape of Uttarakhand. Nanda Devi, one of the highest Himalayan peaks at 7,817m (25,646 ft), is located in the northeastern part of the state. Alaknanda, Bhagirathi (Ganga), Yamuna etc. are the major rivers of Uttarakhand. Corbett National Park, Ramnagar, Nainital, Mussoorie etc. are the popular places. The climate of Uttarakhand varies according to elevation.
Swami Vivekanand, Madan Mohan Malviya, Rabindranath Tagore, Mahatama Gandhi, Brooster and other luminaries have drawn inspirationfrom this beautiful state (a region, then the part of Uttar Pradesh). Uttarakand has produced many renowned personalities in different walks of life, Padamshri R. S. Bisht, Awatar Singh Panwar, C.P Joshi, J.P. Joshi, G.B. Pant, Sumitra Nandan Pant, H. N. Bahuguna, General B. C. Joshi, Padamshri Yashodhar Mathpal, Padamshri Shekhar Pathak, Padamshri K. S. Valdia, Padamshri H. C. S. Rawat, Padamshri B. D. Pandey ICS, Sundar Lal bahuguan, Jaspal Rana, Mahendra Singh Dhauni and many others.
Art is an exchange of feelings, signs, and thoughts. Inspiring joyfully it also attracts the viewer or listener for the same. It can be displayed by visual and performing depictions for its recipients. Hence it is a simple way of communication. Besides it works for a better function. It brings relaxation to our body, mind and soul and also inspires to create a new work of art.
Uttarakhand has rich artistic heritage. Chholia, Jhaura, Chancheri Chapeli, Bhagnaula etc. are major performing folk arts of Uttarakhand. These are performed during marriages, fairs, religious rituals, and other occasional ceremonies. Nanda Jat is a peculiar tradition of performing art.
Chholia is a war dance. The performers of Chholia wear unique garments having coloured steps on white –based dress. The dance begins with the blowing of the Beenbaja- Musk Been or Bagpipe and sound beatings of Dhol and Damuas, in that music two people with shield and sword perform the dance. Not a single woman participates in this dance.
Jhora is a group dance performed spontaneously in a circle by men and women. Jagar, Baisi, Ramoli, Jhumelia and Ghaneli performed in dance- music are ritualistic ceremonies. Thadya and Chancheri are a free-movement dance and a kind of playful competition respectively based on love.
A dramatic performance played by two men is called Chhapeli in which one acts as a woman. Hurkiya Bol is an enchanting dance-music performed in the harvesting fields when women do the works of sowing, hoeing, and implanting especially during the Kharif corp. The dances of Uttarakhand Tribes have their own way of performing their art. Ramlila Manchan of Uttarakhand has played a vital role in establishing this art. The Ramlila of Laxmi Bhandar (Hukka Club) Almora and Jagar/Dhol Dance of Garhwal are currently very famous.
At present Uttarakhand has pride to have an evidence of prehistoric rock paintings in the state. On the bank of the Suyal River near Barechina in Almora, two painted rock shelters reveal paintings of animals, humans and also drawn with fingers in black, red and white colours. Painting including the folk arts has an important place in Indian art.
Garhwal School of Painting of Uttarakhand has played an important role in Indian art. “About the middle of the 17th century A.D. Suleman Shikoh, a Mughal Prince, took refuge in Garhwal. The prince brought along with him an artist and his son who were his court painters and well versed in the Mughal style of miniature painting. After nineteen months, the prince left Garhwal but his court painters enchanted by the environment, stayed behind. These painters settled in Srinagar (currently in Pauri District of Uttarakhand), the then capital of the Panwar dynasty and introduced the Mughal style painting in Garhwal. With the passage of time, the successors of these original masters became expert painters and also developed an original style of their own. This style later on came to be known as the Garhwal School of Painting.”
Maularam, Jwalaram, Tejram, Brijnath were the great masters of the Garhwal School. A rich collection of Maularams contributions are displayed in the H.N.B. Garhwal University Museum at Srinagar and Maularam Art Gallery, Srinagar. The credit goes to Bairistar Mukandilal who introduced first the importance of the paintings of Garhwal School. The masterpieces of the Garhwal School of Painting include the following:
1. Illustrations of Ramayana (1780 A.D.)
2. Illustrations of Gita Govinda
3. Celebrations of Balarama’s Birthday (1780 A.D.)
4. Series of Raginies
5. Nayikaon ka Ankan
6. Paintings of Radha and Krishna
7. Kaiya Daman
8. Krishna Lifting Mountain
The main theme of the paintings is based on religious background along with the depiction of the natural beauty of the people and region. Delicate eye brows and thin nose with definite nose bridge on soft oval shaped face, sandal on forehead, beautiful women with fully developed breasts, thin waist line reflect the special features of the Garhwal School to spread a message of love in fusion of religion and romance.
Temple architecture of Uttarakhand has richness and contributes to the ocean of the great Indian architecture. It is said by Swarn Lata Mishra regarding the Indian Sun temples “Among ancient Indian Sun- temples, Martanda Temple in Kashmir, Modhera Sun Temple in Gujrat and Konark in Orissa are world famous for their beautiful architecture and grandeur.” Uttarakhand has a pride to have sun temples. On the top of the hill designed in its original way the biggest and most impressive sun temple is built in Katarmal near Kosi Almora in Kumaon. In Garhwal there is also a Sun Temple in Palethi, 7 km from Hindolkhal.
Pun, Katuyaris, Panwars, and Chand dynasties of the region built big stone temples in different places such as Adi Badri, Kedarnath, Tungnath, Kamleshwar, Lakhamandal in the Garhwal region and Baijnath, Dwarahat, Champawat Gangolihat, Jageshwar, Nandadevi, are in Kumaon region. Some of these temples were erected with highly intricate and ornamental carving, having beautiful idols. According to Purnima Pande “The salient features of this style of architecture are the lotus shaped roof, lion over the elephant which is projected over lower Shikhara normally covering the audience hall and outer walls executed either in Panch Rath or Sapta Rath pattern, giving the temple a cylindrical shape. The main temple is invariably surrounded by a couple of smaller temples, which house deities of lower hierarchy.” (Dr. Purnima Pande)
The woodcarving of Uttarakhand is famous for its beautiful designs. Wooden doors and windows of houses are carved with the designs of creepers and floral forms based on lotus, pomegranates and grapes, images of Gods and Goddesses, humans, birds, animals and other sacred signs and emblems. Folk art has played a vital role in Uttarakhand. Aipan, Peeth, Patas, Dekara, Rangwali etc. are the folk arts of Uttarakhand. Almost every ceremony and festival starts with the visualization of these.
Several eminent and budding artists of this state are exploring their way of art communication world wide. Mohd. Saleem, Mukul Panwar, Pankaj Panwar, Surendra Joshi, Ekeshwar Hatwal, D. S. Rawat, Devendra Nayak, Ishan Bahuguna, Mamta Singh, Jag Mohan Bangani etc. are among them including myself too.
Apart from attracting tourists to the state with brochures and presentations, the Uttarakhand Tourism Department had hit upon a novel idea to woo prospective tourists with paintings of the picturesque hill State to organize an artist camp in the Ananda in the Himalaya at Narendra Nagar in the year 2002. Jatin Das (an eminent artist basically from Orissa), Gopi Gajwani, Sunil Das, Yusuf Arakal, Rajiv Lochan, Shamsad Husain, Harsh Vardhan, Rinni Dhumal, Amitabh Das, Apurv Desai, Subrato Kunddu, Anupam Sud, C. M. Mishra and Shekhar Chandra Joshi participated in this camp.
Another Artists Camp was organized by the Department of Culture of Uttarakhand in collaboration with NZCC Chandigarh in Parmarth Niketan at Rishikesh in the year 2006. Baldev Ghambhir, Ishwar Dayal, Rohit Kumar, Avnish Mishra, Roopam B. Duna, Rakesh Kumar, Hemant Rao, Umesh Kumar, Basant Keshav, Ram Singh, Awdhesh Mishra, Shekhar Chandra Joshi, C. M. Mishra and others attended the camp. The convener of the camp was Dr. Lalta Prasad.
Thus it shows that Uttarakhand has a unique combination of creativity including the abodes of God and the state has added to the splendor and glory of Art, a rich part of India.
Nevertheless, following points are raised in my mind to promote the art and welfare of the artists including the welfare of the society.
1. Government should release an order to all the departments that they should decorate their departments with the artifacts made by the local artists instead of printed materials. It will encourage to the art and artists automatically.
2. There are several programme funded by Ministry of Science to make science popular among the students. Unfortunately we do not have any such funding agency to make art popular among the students especially in the field of visual arts.
3. There are several funding agencies for the science scholars ready to provide the expenses to attend any national and international seminars/ conferences/ workshops. In the field of visual arts we do not have such funding agencies that provide the expenses for this purpose.
4. Indian Government including Indira Gandhi National Open University could not start distant learning courses in the field to the students of visual arts.
5. Unfortunately artists especially painters and sculptors etc. in the field of visual arts do not have the provision to seek 50% discount while they travel by rail to attend any artistic meet/ function. However this kind of facility is being provided to the sports persons.
6. Art of any state should be properly preserved and exhibited; Our state Uttarakhand does not have any Lalit Kala Academi to do this kind of work. However other state academies of the country are fulfilling this kind of work.
7. Indian Administrative Service and Public Service Commission (Lok Seva Aayog) of each state should include the theory course of visual arts for those students who have studied and passed out in the subject up to graduation and post graduation level for the several examinations like IAS and PCS.
8. Art should be compulsory up to the high school level including their states art and artists in the syllabus.
9. Americans for the Arts has developed an online toolkit to help arts organizations respond effectively in times of crisis. The Arts Funding Response and Readiness Kit provides current information, key messaging, communications and advocacy strategies, and the research you need to make the case for keeping the arts in your community. Our government should plan to bring out such information.
At last, I have in my mind that a time will come soon when our government will provide all the facilities as mentioned above to the visual artists like the scheduled castes and scheduled tribes of the country to promote them due to their having, by and large, a close affinity along with nature. It seems they were the true friends of our nature. It is our true dream to save the nature first with love and peace along with global artistic harmony on this earth. Following words in the form of a poem would appeal to you as a gist of my above paper.
I offer you beauty. You offer the same.
I offer you friendship. You offer the same.
I offer you love. You offer the same.
I offer you peace. You offer the same.
I hear your need. You hear the same.
I communicate myself. You communicate the same.
I create the art. You create the same.
Let us work for the community and its communication.




References:
1. Anandita Tamta, Anand Bazar Patrika, Kolkatta, February 03, 1996
2. Hindustan Times, Lucknow, January 13, 1999
3. Times of India, Lucknow, January, 1999
4. Uma Prasad Thapliyal, Uttaranchal Etihasik Avem Sanskritik Aayam, B. R. Publishing Corporation Ltd., Delhi, 2005, pp- 9 & 156
5. Dr. Purnima Pande, Art Heritage of Garhwal and Kumaon Himalayas, Director Tourism (Hills), Dehradun, Year –Not Printed, pp-8 & 9
6. Dr. Swarn Lata Mishra, Sun Worship In India, International Journal of Visual Arts Studies and Communication (IJVASC), Vol-1, 1998, p-49
7. Dr. Purnima Pande, Art Heritage of Garhwal and Kumaon Himalayas, Director Tourism (Hills), Dehradun, Year –Not Printed, p-4